किसी भी प्रकार के यौन विकारों का मूल आधार वीर्य ही होता है। स्वस्थ पुरूष के वीर्य में गाढ़ापन, चिपचिपापन, चिकनापन तथा हल्की सी सफेदी होती है तथा उसमें गंध होती है। ऐसे ही निर्दोष वीर्य में संतान पैदा करने वाले शुक्राणुओं का निर्माण होता है। वीर्य की रक्षा से ही वीर्य गाढ़ा व पुष्ट बनता है जबकि इसके विपरीत फिजूल में वीर्य नष्ट होने से मनुष्य का वात संस्थान कमजोर होता है। जिस तरह नींव के हिल जाने से मजबूत बना हुआ मकान हिल जाता है। उसी तरह से वात संस्थान कमजोर पड़ने से मनुष्य का जीवन रूपी मकान भी कमजोर पड़ जाता है। हमारे प्राचीन ऋषियो-मुनियों ने तो इसी वीर्य के बल पर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए हजारों साल की आयु पाई थी। लेकिन आज के माहौल में तो 14-15 साल का बालक भी गलत संगति में पड़कर हस्तमैथुन या अन्य अप्राकृतिक क्रियाओं द्वारा अपने पुरूषत्व की असली जान वीर्य को बड़ी बेदर्दी से नष्ट करना शुरू कर देता है। जबकि इस उम्र में वीर्य कच्चा होता है। यदि हम किसी पेड़ की कच्ची शाखा को मरोड़ दंे तो पूरी शाखा मुर्झा जाती है। इसका सार यही है कि कच्ची अवस्था में जिस वस्तु पर अनुचित दवाब डाला जाएगा उसकी बढ़ने की शक्ति भी उतनी कम होती जाएगी। शुद्ध वीर्य के लक्षण: यह सौम्य, चिकना, थोड़ा भारी व गाढ़ा होता है। रंग सफेद या घृत होता है, गन्धरहित या मधु की सी गन्ध वाला होता है तथा इसमें संतान उत्पन्न करने की क्षमता होती है अर्थात् पर्याप्त मात्रा में जीवित एवं सक्रिय शुक्राणु उपस्थित रहते हैं।
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